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अपेक्षा-उपेक्षा / निमिषा सिंघल
Kavita Kosh से
अपेक्षाएँ पांव फैलाती हैं
जमाती हैं अधिकार,
दुखों की जननी का हैं एक अनोखा संसार।
जब नहीं प्राप्त कर पाती सम्मान,
बढ़ जाता है क्रोध
आरम्पार,
दुख कहकर नहीं आता
बस आ जाता है पांव पसार।
उलझी हुई रस्सी-सी अपेक्षाएँ ख़ुद में उलझ
सिरा गुमा देती हैं।
भरी नहीं इच्छाओं की गगरी
तो मुंह को आने लगता है दम।
भरने लगी गगरी
उपेक्षाओं के पत्थरों से,
जल्दी ही भर भी गईं
पर रिक्तता बाक़ी रही।
मन का भी हाल कुछ ऐसा ही है
स्नेह की नम मिट्टी पूर्णता बनाए रखती हैं,
उपेक्षाएँ रिक्त स्थान छोड़ जाती हैं।