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अप्पन-अप्पन गाँव / गौतम-तिरिया / मुचकुन्द शर्मा

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मन में रसल-बसल हे सबके, अप्पन-अप्पन गाँव।
परदेसी के घर पहुँचेले, तेज चल रहल पाँव।
झरबेरी, जामुन के नीचे, बुतरू कयने शोर,
बिन फैसन, आभूषण के भी, लगल जुअनकी गोर।
तीसी, मटर, चना फुलाल हें, पसरल हे बँसबाड़ी,
ट्रेक्टर, मोटर सााि अभी भी, दउड़ल बैलो-गाड़ी।
मोर, पपीहा कोयल कूके, अमराई में बइठल,
कत्ते कहना सुनके दउड़ल, कत्ते बुतरू अइँठल।
सरसों के पीयर अँचरा, फहरे लहरे हर ठाँव।
मन में रसल-बसल हे सबके, अप्पन-अप्पन गाँव।
आम, बेल में छोटकी-छोटकी गेंद बहुत लटकल हे,
ई अखण्ड शोभा देखेला, मनवाँ तो अँटकल हे।
फाल-कुदाली, हल कंघा पर, लेके चलल किसान,
पंडितजी पतरा बाँचेला, अयलन घर जजमान।
झमझम बरसे सावन, रोपनी गावे हर्षित गीत,
यमुना तीरे कान्हा राधा में हो रहल पिरीत।
आँख पसारे घर मंे गोरी, कौआ बोलल काँव,
मन में रसल-बसल हे सबके, अप्पन-अप्पन गाँव।
सुबह प्रभाती, होली मंे होलियाल चइत चइतावर,
जेठ आउ बइसाख मास में, घर-घर सजल महावर।
घूरा तर बइठल बूढ़ा, सुख-दुख के राग सुनावे,
रूसल दुलहिन के घर में, बड़का सब खूब मनावे।
बूढ़ा बरगद तर बइठल सब, गाय करे हे पागुर,
पुरवा, पछिया, दखिनाहा भी, हवा चले हे फुर-फुर।
गेह-नेह से भींगल अँखिया, मधुमिश्रित प्रिय छांव,
मन में रसल-बसल हे सबके, अप्पन-अप्पन गाँव।