भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अप्प दीपो भव / नन्द 3 / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
बैठी है सुन्दरी
झरोखे में
नन्द उसे देख रहे आतुर हो
आँख हुई सागर हैं
भूल गईं पलकें भी हैं झँपना
हेमशिखर टेर रहे
मिठयाई रातों का है सपना
लगी उन्हें सुन्दरी
फागुनी हवाओं का
ज्यों अन्तःपुर हो
सुन्दरी नहीं - वह तो
कविता की पंक्ति है अनूठी-सी
दूर से लुभाती है
जैसे हो कोई जादू की बूटी-सी
और बोल तो उसके
लगते हैं
होंठ-धरा वंशी का सुर हो
थमी सृष्टि - थमी दृष्टि
थमा हुआ हर पल है
लगता है - देह नहीं
अभी उगी नई-नई कोंपल है
सुन्दरी नहीं
जैसे यह कोई
कामना जगाने का गुर हो