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अफ़ीम फिर भी ठीक है, धर्म तो हेमलाक विष है / रुद्र मुहम्मद शहीदुल्लाह / शिव किशोर तिवारी

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जैसे ख़ून में जनमती है पीली बीमारी
और बाद में फूट पड़ता है त्वचा और माँस का बीभत्स क्षरण,
राष्ट्र के बदन में आज वैसे ही देखो एक असाध्य रोग
धर्मांध पिशाचों और परलोक बेचनेवालों की शक़्ल में,
धीरे-धीरे प्रकट हो गया है क्षयरोग,
जो धर्म कभी अन्धेरे में रोशनी लाया था,
इस रोग से ग्रसित आज उसका कंकाल और सड़ा माँस
बेचते फिर रहे हैं स्वार्थपरायण बेईमान लोग –
सृष्टि के अज्ञात अंश को गप्पों से पूरते हुए।
अफ़ीम फिर भी ठीक है, धर्म तो हेमलॉक विष है।
धर्मांध के पास धर्म नहीं है, लोभ है, घिनौनी चतुराई है,
आदमी की धरती को सौ हिस्सों में बाँट रखा है
इन्होंने, क़ायम रखा है वर्गभेद
ईश्वर के नाम पर।
ईश्वर के नाम पर
दुराचार को जायज़ बना दिया है।
हाय री अन्धता ! हाय री मूर्खता !
कितनी दूर, कहाँ है ईश्वर !
अज्ञात शक्ति के नाम पर कितने नरमेध,
कितना रक्तपात,
कितने निर्मम तूफ़ान आए हज़ार सालों में।

कौन हैं वे बहिश्त की हूरें, कैसी जन्नत की शराब और
कैसा अन्तहीन यौनाचार में निमग्न अनन्त काल
जिनके लोभ में आदमी जानवर से बदतर हो जाए?
और कौन सा नरक है इससे अधिक भयावह,
भूख की आग सातवें नरक की आग से कुछ कम है?
वह रौरव की ज्वाला से कम आँचवाली, कम कठोर है?
इहकाल को छोड़कर जो परकाल के नशे में चूर हैं
उनका सब कुछ उस पार बहिश्त में चला जाए,
हम रहेंगे इस पृथ्वी की मिट्टी, पानी और आकाश में,
द्वन्द्वात्मक सभ्यता के गतिमान स्रोत की धारा में,
भविष्य के स्वप्न में मुग्ध, समता के बीज बोते जाएँगे।

मूल बांग्ला से शिव किशोर तिवारी द्वारा अनूदित