भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अफ़्सोस ख़ुद को ख़ुद पे नुमायां न कर सके / सरवर आलम राज़ ‘सरवर’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अफ़्सोस ख़ुद को ख़ुद पे नुमायां न कर सके
हम ज़िन्दगी को साहब-ए-ईमां न कर सके

राह-ए-तलब में कार-ए-नुमायां न कर सके
अश्क़-ए-जुनूं को आईना-सामां न कर सके

वो इश्क़ क्या जो दर्द का दर्मां न कर सके
वो दर्द क्या जो इश्क़ को आसां न कर सके

हर लम्हा-ए-हयात हिसाब अपना ले गया
"हम ज़िन्दगी में फिर कोई अरमां न कर सके

दामान-ए-आरज़ू की दराज़ी तो देखिए
खु़द से भी ज़िक्र-ए-तंगी-ए-दामां न कर सके

यूँ मुब्तिला-ए-कुफ़्र-ए-तमन्ना रहे कि हम
चाहा हज़ार,दिल को मुसलमां न कर सके

क्यों मुझसे लाग है तुझे ऐ शूरिश-ए-हयात
वो काम कर जो गर्दिश-ए-दौरां न कर सके!

इतनी तो हो मजाल कि ख़ुद को समेट लें
क्या ग़म जो हम तलाफ़ी-ए-हिज्रां न कर सके

इस दर्जा फ़िक्र-ए-शेहर-ए-निगारां में गुम रहे
हम खु़द भी अपनी ज़ात का इर्फ़ां न कर सके

"सरवर" चलो है मैकदा-ए-इश्क़ सामने
मुद्दत हुयी ज़ियारत-ए-इन्सां न कर सके