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अब आग के लिबास को / कुँअर बेचैन
Kavita Kosh से
अब आग के लिबास को ज़्यादा न दाबिए,
सुलगी हुई कपास को ज़्यादा न दाबिए ।
ऐसा न हो कि उँगलियाँ घायल पड़ी मिलें,
चटके हुए गिलास को ज़्यादा न दाबिए ।
चुभकर कहीं बना ही न दे घाव पाँव में,
पैरों तले की घास को ज़्यादा न दाबिए ।
मुमकिन है ख़ून आपके दामन पे जा लगे,
ज़ख़्मों के आसपास यों ज़्यादा न दाबिए ।
पीने लगे न ख़ून भी आँसू के साथ-साथ,
यों आदमी की प्यास को ज़्यादा न दाबिए ।