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अब इख़्तियार में मौजें न ये रवानी है / अभिषेक शुक्ला
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अब इख़्तियार में मौजें न ये रवानी है
मैं बह रहा हूँ कि मेरा वजूद पानी है
मैं और मेरी तरह तू भी इक हक़ीक़त है
फिर इस के बाद जो बचता है वो कहानी है
तिरे वजूद में कुछ है जो इस ज़मीं का नहीं
तिरे ख़याल की रंगत भी आसमानी है
ज़रा भी दख़्ल नहीं इस में इन हवाओं का
हमें तो मस्लहतन अपनी ख़ाक उड़ानी है
ये ख़्वाग-गाह ये आँखें ये मेरा इश्क़-ए-क़दीम
हर एक चीज़ मिरी ज़ात में पुरानी है
वो एक दिन जो तुझे सोचने में गुज़रा था
तमाम उम्र उसी दिन की तर्जुमानी है
नवाह-ए-जाँ में भटकती हैं ख़ुशबुएँ जिस की
वो एक फूल कि लगता है रात-रानी है
इरादतन तो कहीं कुछ नहीं हुआ लेकिन
मैं जी रहा हूँ ये साँसों की ख़ुश-गुमानी है