अब और नहीं... / अनुपमा तिवाड़ी
6 अगस्त 1945
को हिरोशिमा, नागासाकी से उठे धुंए की कालिख
अब भी मेरे फेफड़ों में जमा है
अब भी मुझे रह-रह कर उसकी खाँसी उठती है
अब भी मेरी आँखों से गिरता गर्म, मृदु जल ठंडा नहीं पड़ा है
वो सुबह जो काली हो, दर्ज़ हो गई इतिहास में
उस सुबह का ताप, आज भी मेरा शरीर यहाँ पाता है
और तुम हो कि मूछों पर ताव देते हुए ताल ठोक रहे हो
बटन पर अंगूठा रख कर ललकार रहे हो
आओ, हम बताएँ तुम्हें
हमारे पास परमाणु हथियार हैं / हमारे पास न्यूक्लियर बम हैं
पता है, तुम्हारी ताकत
कि तुम्हारे ये हथियार,
समूची पृथ्वी को 15 से 20 बार नष्ट कर सकते हैं
देश / सत्ता ऐसे ही ललकारते हैं
झंडे ऐसे ही ऊंचे होते हैं
लेकिन इस खेल में क्या तुम खुद, अपने को बचा पाओगे?
कभी नहीं!
समूचे प्राणी जब काल के ग्रास बन जाएँगे
तब हजारों सालों के बाद,
तुम जन्म लोगे अमीबा से
मैं चुप हूँ
मुझे पढ़ो,
मुझे सुनो,
अब और धुंए के लिए मेरे फेफड़ों में जगह नहीं है
मुझे सृजन चाहिए,
सिर्फ सृजन
विनाश, जैसे शब्दों से अब,
मेरा रक्तचाप कम होने लगता है