अब कहाँ खो गईं वो सभी चिट्ठियाँ / आलोक यादव
अब कहाँ खो गयीं वो सभी चिट्ठियाँ
ख़ुशबुओं में नहायी सजी चिट्ठियाँ
अब चलन में नहीं प्यार की चिट्ठियाँ
लोग लिखते हैं बस काम की चिट्ठियाँ
वो कहाँ तक छुपाता बहा दीं सभी
जान से थीं जो प्यारी तेरी चिट्ठियाँ
उसके छूने से जो हो गयीं मख़मली
भेज दे काश वो फिर वही चिट्ठियाँ
अक्स उभरता था जिनमे तेरे रूप का
कुछ सलोनी तो कुछ साँवली चिट्ठियाँ
खुश्बुएं थीं, नज़ाकत थी, अंदाज़ थे
याद आयीं मुझे नरगिसी चिट्ठियाँ
रात भर ओस ने पाँखुरी पाँखुरी
लिख के भेजीं मुझे शबनमी चिट्ठियाँ
गोपियों ने सुनी राधिका ने पढ़ीं
श्याम की बाँसुरी ने लिखी चिट्ठियाँ
गोपियों का न विश्वास देखो डिगे
लेके ऊधौ चले ज्ञान की चिट्ठियाँ
एक बेवा के अश्कों से लिक्खी हुई
दफ़्तरों दफ़्तरों घूमती चिट्ठियाँ
दिल के औराक़ पर मैं जो लिखता रहा
किसको भेजूँ मैं वो दर्द की चिट्ठियाँ
उसकी बेटी जो पढ़ने गयी हॉस्टल
माँ ने भेजीं नसीहत भरी चिट्ठियाँ
सूनी आँखों में मंज़र जगाती हुई
सोयी रातों में कुछ जागती चिट्ठियाँ
सोचता हूँ ये 'आलोक' बैठा हुआ
ये ग़ज़ल है मेरी या मेरी चिट्ठियाँ
दिसम्बर 2014
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प्रकाशित- अमर उजाला (समाचार पत्र) "शब्दिता" दिनाँक – 12.04.2015