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अब किसे बनवास दोगे / अध्याय 1 / भाग 6 / शैलेश ज़ैदी

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सरयू से लेकर मैं उसकी ओजस्विता
चाहता हूँ रचना कुछ शब्द चित्र
भारतीय संस्कृति के
गंगा की उज्जवल तरंगों के मध्य से
चाहता हूँ लेना सहज बिम्ब
आगम, निगम, पुराण और स्मृति के
प्रीतिमत्त मेरा मन
करता है सागर की लहरों का
शब्दानुसंधान!
और मैं वाणी की गति से परे
करता हूँ आत्मक-मन्थन
मन की चंचलता शान्त-बिन्दु पर पहुँकर
हो जाती है स्वतः निःस्वर
दृष्टि के समक्ष रह जाता है वह आकाशव्यापी मन
गूँजती है जिसमें-सरयू की, गंगा की, सागर की धड़कन
हरी-भरी दिखती है जिससे
कौशल्या की गोद
विहँसता है दशरथ का आँगन
बनकर उभरता है किरण-बिन्दु संस्कृति का
मानस में मेरे केवल एक शब्द-राम!
पाती है आशीश उर्वरा शक्ति मेरी
अभिव्यक्त ध्वनियों की लीलाएँ
करती हैं बिम्बित
कविता के आयाम