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अब किसे बनवास दोगे / अध्याय 2 / भाग 5 / शैलेश ज़ैदी

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यह ठीक है कि मैं नहीं हूं महर्षि विश्वामित्र,
शिक्षाविद होने का दावा भी नहीं है मुझे,
फिर भी मनोबल एक भरता है मुझ में
भारतीय संस्कृति का धवल पुंज,
राम का चरित्र!
मैं इस चरित्र को देखता हूँ-
दशरथ के आँगन में,
सरयू की धड़कन में,
ऋषियों के आश्रम में,
गंगा के सरगम में,
कुंज और कानन में,
जानकी के मन में,
जग-जग के जीवन में

राम को परम ब्रह्म मानकर,
चाहता नहीं मैं बिठाना देवालय में
राम! मर्यादा पुरुषोत्तम, पूर्ण मानव हैं मेरे लिए,
राम को उतारा है मैंने संस्कारों में
मुग्ध नहीं होता कभी
वाह्य सौन्दर्य पर मैं
मोहती है मुझको सुंदरता मन की
राम के चरित में असुन्दर नहीं है कुछ
और वह जो सुन्दर है,
वही है प्रगतिशील!
गति सँवारता है वही जीवन की

जनवादी वैचारिकता-
बन गयी है चर्चा का विषय आज
सिर पर उठाये फिरता है उसे,
बाम पन्थी युवा समाज
वैसे तो जनवादी होना शुभ लक्षण है,
पर जो समझता नहीं जनवादिता का अर्थ,
राम नहीं है, वह रावण है

रमा का समूचा व्यक्तित्व है
संस्कृति का रचना बिन्दु,
और यह संस्कृति प्रकृति से जनवादी है
रचनात्माकता इस संस्कृति की,
जनकसुता सीता हैं
भरत और लक्ष्मण हैं
जीवन्त छाया चित्र इसके

परिचित नहीं हैं वाम-पंथी युवा पीढ़ी,
इस संस्कृति के रसायन से
कट-सी गयी है अपने ही घर आँगन से
अर्थ की धु री पर घूमती हैं आज-
भौतिक मान्यताएं
आर्थिक नियति बन गयी है,
नियति मानव की
बाँधे नहीं बंधती हैं आर्थिक सीमाएं
किसको सुनाएं कथाएं आत्मगौरव की
सुनने-सुनाने के बीच,
खाई बहुत गहरी है