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अब के भी यह रुत दिल को दुखाते हुए गुज़री / निश्तर ख़ानक़ाही

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अब के भी यह रुत दिल को दुखाते हुए गुज़री
गुज़री है, मगर नीर बहाते हुए गुज़री

जीने का ये अंदाज़ तो देखो कि मेरी उम्र
जीने के लिए ख़ुद को मनाते हुए गुज़री

काजल-सा बरसता था फ़िज़ा से कि मेरी रात
बे-तेल के दीपक को जलाते हुए गुज़री

गुज़री भी तो किस क़हर से गुज़री है ये पुरवा
सोए हुए ज़ख़्मों को जगाते हुए गुज़री

तरबीर ना मिल पाई तो क्या दुख कि शबे-ग़म
कुछ ख़्वाब तो पलकों पे सजाते हुए गुज़री

नाकाम ये कोशिश थी मगर हिज़्र की हर शब
खुद को, कभी दुनिया को भुलाते हुए गुज़री



1- तरबीर--स्वप्न-फल