अब के साल बहुत बोली कोयल
अमराई ने दर्द बहुत बाँटे
खील-खील हो बिखरा मन दरपन
साँस-साँस में उलझ गए काँटे ।
बच्चों जैसा दूध -नहाया मन
चन्दा पाने को फिर-फिर मचला
क्षितिज-अरगनी टँगा सपन-झूला
पाने को बेचैन, बहुत कलपा
रो-रो जब बाज न आया मन
तनहाई ने जड़े कई चाँटे
अब के साल बहुत बोली कोयल
अमराई ने दर्द बहुत बाँटे ।
कौन छली बनजारा आया था
काँधे सफ़री झोला लटकाकर
निश्छ्ल मुस्कानों की हाट लगा
खिसक गया चुप, दर्द नए देकर ।
हक्का-बक्का खड़ा बिचारा मन
पुरवाई ने चला दिए साँटे
अब के साल बहुत बोली कोयल
अमराई ने दर्द बहुत बाँटे ।