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अब ख़्यालों में है न ख़्वाबों में / शीन काफ़ निज़ाम

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अब ख़्यालों में है न ख़्वाबों में
नाम जिन के लिखे किताबों में

आँख सूनी है आसमाँ वीराँ
आब अगर है तो है सराबों में

रात और दिन के साथ साँसे भी
उम्र तू है कहाँ हिसाबों में

अब के मौसिम में क्या हुआ उसको
क्यूँ ख़ुलूस अब नहीं ख़िताबों में

ज़िंदगी में न पा सके जिन को
ढूँढ़ते हैं उन्हें किताबों में

ये सुना है निज़ाम नाम नहीं
तेरे बदले हुए निसाबों में

वो थमा भी तो क्या करूँगा निज़ाम
फंस गए पाँव ही रक़ाबों में