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अब डर लगता है / शहनाज़ इमरानी

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जायज़ या नाजायज़ हालात
समय की पैदाइश हैं

ग़ायब हो चुके पार्क में
वो झूले याद आते है
तेज़ झूले का डर
छिपकलियों और कॉकरोचों से डर
परीक्षा में फ़ेल होने का डर
भूत, चुड़ैलों का डर

डर भी कितने छोटे होते थे
शरारत और डाँटों के बीच
डर अँधेरे के साथ ही रोज़ रात आता
डराता और सुबह होते चला जाता

साल-दर साल मेरे साथ-साथ
डर भी बड़े हुए
में तो एक हूँ यह अनन्त हुए

अब डर लगता है
लोगों की चालाक मुस्कानों से
दोस्ती में छुपी चालों से
शतरंज की बिसातों से
नफ़रतों से चाहतों से
आतंक, विस्फोट, और इंसानी जिस्मों के टुकड़ों से
दंगाइयों से, आग से, लाठीचार्ज से
पुलिस, नेताओं, चुनाव और फ़साद से
मस्जिद में अल्लाहो अकबर और
मन्दिर में हर-हर महादेव के नारों से
भीड़ में और बस में पास बैठे
अजनबी के स्पर्श से

रास्ता चलते हुए
जिस्म का जायज़ा लेती नज़रों से
ख़ुद के नारी होने से ।