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अब तलक ये समझ न पाए हम / प्रखर मालवीय 'कान्हा'
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अब तलक ये समझ न पाए हम
ग़म तिरा क्यूँ ख़रीद लाये हम?
इक हवेली थी मोम की अपनी
छत पे सूरज उतार लाये हम
इक तबस्सुम की चाह में जानां
लुट गये उफ़ ! बसे बसाये हम
अब भी बेवक़्त मुस्कुराते हैं
तेरे हाथों के गुदगुदाये हम
उम्र भर ढूंढते रहे ख़ुद को
ख़ुद से इक आइना छुपाये हम