भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जायेंगे/ ज़ौक़

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जायेंगे
मर गये पर न लगा जी तो किधर जायेंगे

सामने-चश्मे-गुहरबार<ref>मोती के समान आँसू बहाने वाली आँखें</ref> के, कह दो, दरिया
चढ़ के अगर आये तो नज़रों से उतर जायेंगे

ख़ाली ऐ चारागरों<ref>चिकित्सकों</ref> होंगे बहुत मरहमदान
पर मेरे ज़ख्म नहीं ऐसे कि भर जायेंगे

पहुँचेंगे रहगुज़र-ए-यार तलक हम क्योंकर
पहले जब तक न दो-आलम<ref>लोक-परलोक</ref> से गुज़र जायेंगे

आग दोजख़ की भी हो आयेगी पानी-पानी
जब ये आसी<ref>पाप करने वाला</ref> अरक़-ए-शर्म<ref>शर्म का पसीना</ref> से तर जायेंगे

हम नहीं वह जो करें ख़ून का दावा तुझपर
बल्कि पूछेगा ख़ुदा भी तो मुकर जायेंगे

रुख़े-रौशन से नक़ाब अपने उलट देखो तुम
मेहरो-मह<ref>सूरज और चन्द्रमा</ref> नज़रों से यारों के उतर जायेंगे

'ज़ौक़' जो मदरसे के बिगड़े हुए हैं मुल्ला
उनको मैख़ाने में ले लाओ, सँवर जायेंगे

शब्दार्थ
<references/>