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अब नहीं आती / रोहित रूसिया
Kavita Kosh से
अब नहीं आती
किसी की चिट्ठियाँ
नेह में
मनुहार में
जीत में या हार में
चुक गयी है
वेदना भी
वर्जना कि धार में
स्वार्थ की सीलन ढँकी
दिखती है
मन की भित्तियाँ
अब नहीं आती
किसी की चिट्ठियाँ
आदमी बढ़ता गया
चढ़ता गया
चढ़ता गया
और समय की होड़ में
खुद, आवरण
मढ़ता गया
भूल बैठा
झर रही हैं
नींव की भी गिट्टियाँ
अब नहीं आती
किसी की चिट्ठियाँ