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अब न चेते हम अगर तो / जयशंकर पाठक 'प्रदग्ध'

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कट रहे हैं वृक्ष सारे, बढ़ रहा है ताप जग का,
अब न चेते हम अगर तो, सृष्टि का संहार होगा।

छीन हरियाली धरा की, घोल विष पर्यावरण में।
घिर चुका है आज मानव, खुद विषादित आवरण में।
इस तरह हर एक बच्चा, गर्भ में बीमार होगा,
अब न चेते हम अगर तो, सृष्टि का संहार होगा।

बाढ़ या भू-कंप या फिर, फट रहीं जब भी घटाएँ।
मृत्यु का संदेश लातीं, प्राकृतिक हर आपदाएँ।
सृष्टि के रक्षार्थ, ऐसे में कहाँ अवतार होगा?
अब न चेते हम अगर तो, सृष्टि का संहार होगा।

साथ यदि हम हों प्रकृति के, कल सदा स्वर्णिम रहेगा।
पवन होगा स्वच्छ, परिमल, जल सदा निर्मल बहेगा।
पेड़-पौधों को बचाकर, ही सकल उपचार होगा,
अब न चेते हम अगर तो, सृष्टि का संहार होगा।