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अब बेरा कहाँ बा? / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’
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अब बेरा कहाँ बा?
दिन ढल गइल
धरती पर छाँह लमर गइल।
गदबेर हो गइल।
चल रे चल सखि जल्दी कर
पनघट पर पहुँच के गगरी भर।
जलधारा के कल-कल स्वर से
साँझ के आकाश बेचैन हो उठल बा।
ओही स्वर के सनेसा
हमरा हर दम मिल रहल बा
कि कलशी भरे के होखे
त जल्दी से घाट पर चल।
अब एह निर्जन राह पर
केहू के आवाजाही नइखे।
प्रेमनदी में लहर उठ रहल बा।
हवा हहकार रहल बा।
ना जानी जे हम फेनू
लौट के आएब कि ना?
के जानऽता
जे आज के भेंटा जाई
केकरा से चिन्हा-परचे हो जई?
घाट पर, नाव में बइठके
उहे अजनबी
आज फेर बंशी बजा रहल बा।
चल रे घाटे चल
गगरी भरे चल।