भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अब मगर का भय नहीं है / सर्वत एम जमाल
Kavita Kosh से
अब मगर का भय नहीं है
कहीं कुछ संशय नहीं है
हर नदी हर ताल में, बस,
केकड़े ही केकड़े हैं
आप बाहर क्यों खड़े हैं?
कल्पना से आकलन तक,
लोग जा पहुँचे गगन तक
और हम सदियों पुरानी
दास्तानों पर अड़े हैं।
मज़हबी बीमारियों में
समर की तैयारियों में
ध्वंस की पकती फ़सल में
सब बिजूका से गड़े हैं।
पथ सभी अवरुद्ध जैसे
कुल विधर्मी युद्ध जैसे
आज घर ही में पितामह
बाण शैया पर पड़े हैं॥