भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अब मोहिं दीखत और न ठौर / स्वामी सनातनदेव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग देश, तीन ताल 31.7.1974

अब मोहि दीखत और न ठौर।
भटकि-भटकि हार्यौ मैं प्यारे! मिल्यौ न एकहुँ कौर॥
अपनी-अपना परी सबहिकों, तकहिं न मेरी ओर।
लच्छ एक पै पन्थ अनेकन, निज-निज पथ पै जोर॥1॥
लच्छ छाँड़ि पथ ही कों पोसहिं, होत कलह घन-धोर।
मेरे तो हो तुमहि पन्थ अरु तुमहि लच्छ-सिरमौर॥2॥
तुमहिं छाँड़ि मैं जाउँ कहाँ, बस पर्यौ तिहारी पौरि।
मारहु वा तारहु मनमोहन! तकों न दूजी ओर॥3॥