भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अब रिवायात से हटकर देखो / चाँद शुक्ला हदियाबादी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम् रिवायात से हटकर देखो
अपने घूँघट को पलटकर देखो
 
दोस्तों से तो गले मिलते हो
दुश्मनों से भी लिपट कर देखो

उतनी फैलाओ कि तन ढँक जाए
अपनी चादर में सिमट कर देखो
 
स्वर्ग के ढोल सुहाने सपने
पहले दुनिया से निपट कर देखो
 
और फैले तो बिखर जाओगे
’चाँद’ की तरह भी घट कर देखो