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अब रुला जाते हैं माँ के आँसू / महेश सन्तोषी

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जाने क्यों मुझे अब भी रुला जाते हैं
बरसों पहले बहे मेरी माँ के आँसू
जैसे बरसों पीछे से रिसते हैं, पिघल जाते हैं
वक्त की पलकों से फिसलते, गीले आँसू

छोटे से इक कस्बे में, एक छोटा-सा घर था हमारा
दो-चार कमरे थे घर में, एक आँगन था, प्यारा-प्यारा
उन दिनों ना बिजली थी, ना नल
मशकों से पानी ढोते थे, भिश्तियों के दल
सड़कों पर जलती थीं, सरकारी लालटेनें
चिमनियाँ खोज लेती थीं, अँधेरों के हल
गुजर भी रहा था मैं उससे और देख भी रहा था
अपनी जिन्दगी का सफर
कैसे चलता है अपना घर, अपना मोहल्ला, अपना शहर!

पिता के कन्धों पर था, खर्च का बोझ
माँ के कन्धों पर थी, सारी गृहस्थी
अन्दर से तो प्यार से भरी थी, जिन्दगी
पर बाहर अभावों से, भरी थी
माँ दुलार बाँटती थी, हम अभाव बाँट लेते थे
जो माँ पिलाती थी, पी लेते थे
जो माँ खिलाती थी, खा लेते थे

पर हमारी आँखों से छिपते नहीं थे
माँ की पलकों में दबे, छिपे आँसू
हम चोरी-छिपे देख ही लेते थे
चोरी से गिरे माँ के आँसू

अब भी जब कभी याद आ जाते हैं
ममता के दर्द से भरे माँ के आँसू
सिहर जाता है दिल, प्राण काँप जाते हैं
हथेलियों पर गिर ही जाते हैं दो आँसू

जाने क्यों मुझे अब भी रुला जाते हैं
बरसों पहले बहे मेरी माँ के आँसू।