अब वह पहले से माह-ओ-साल कहाँ
ज़िंदगी वैसी ख़ुश खिसाल कहाँ
वो फ़लक पर है और ज़मीं पर हम
अब कोई सूरत-ए-विसाल कहाँ
मौज मस्ती लुकाछुपी हुड़दंग
आज बचपन में वह धमाल कहाँ
थे जो अंजान रस्म-ए-दुनिया से
अब वह मासूम नौनिहाल कहाँ
चाहे कितनी चमक-धमक हो मगर
सादगी की कोई मिसाल कहाँ
उनसे पूछें कि वह ख़फ़ा क्यों हैं
दिल में ये जुर्रत-ए-सवाल कहाँ
घर से बाहर हुए शजर लेकिन
हमको इस बात का मलाल कहाँ
चाहे कितने कवच पहन लें हम
माँ के आँचल-सी कोई ढाल कहाँ
गुफ़्तगू किस से अब करें जाकर
कोई मिलता है हम-ख़याल कहाँ
सब हैं मसरूफ़ अपनी दुनिया में
हम करें जा के अर्ज़-ए-हाल कहाँ
उसकी रहमत है ये ग़ज़लगोई
वरना ‘मधुमन’ में ये कमाल कहाँ