भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अब व्यथाओं से न हम संत्रस्त हैं / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अब व्यथाओं से न हम संत्रस्त हैं
पीर सहने के बड़े अभ्यस्त हैं

पास चिन्ता से कहो आए न वो,
साधना मंे आजकल हम व्यस्त हैं

कर सकेंगे क्या भला वे देश का
पृथकता के रोग से जो ग्रस्त हैं

स्वार्थ के भूकम्प से अब हो चुके
नीति के प्रासाद सारे ध्वस्त हैं
अब न एकाकी रहेंगे हम कभी
वेदना की प्रीति से आश्वस्त हैं

भाग्य का रोना कभी रोते नहीं
बाँह श्रम की थामते जो हस्त हैं

मित्रता पाली ‘मधुप’ गंतव्य तक
राह के काँटे बड़े विश्वस्त हैं