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अभंग-1 / दिलीप चित्रे

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मानदण्ड उनका है भय-ग्रन्थि
अब सुसंस्कृत ही हैं सब गाँडू

समाया प्रतिष्ठित पेटों में भय भव्यता का
कीर्ति करे आरती झंझाओं की

अपशब्दों को बनाया सुख का साधन
अब ले रहे हैं पतन की डकार

ऐसों में हमको ढकेल दिया भगवान
वैसा सरस्वती का भड़वा मैं तो नहीं

जुटाते हैं सभा और सम्मेलन
कहते हैं वाह-वाह बजाते तालियाँ

भगवान क्या वही है श्रोता जो जाने न नाता
शताब्दियों का स्वयंसिद्ध?

काव्य नहीं ऐसा सस्ता व्यापार
जैसे टिकट लगाकर रोटी-बेटी-सा व्यवहार!


अनुवाद : चन्द्रकांत देवताले