भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अभागिन और तीसरा दर्ज़ा / विजय कुमार देव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तीसरा यानी सामान्य दर्ज़े
के डिब्बे में ,
लम्बी यात्रा करते हुए
ज़रूर पढ़ा होगा आपने
छपा हुआ पर्चा
हिन्दी फिर अंग्रेज़ी में
जिसका मज़मून
किसी न्यायाधीश का बनाया
पूरे हिंदुस्तान में एक-सा होता है ?

पढ़ा होगा कि
इस अभागिन ब्राह्मणी विधवा बहिन
जिसने चारों-धाम तीरथ किया
बेघर है ,मौन-व्रत रखे हुए है अरसे से।
कन्याएँ ब्याहना चाहती है अपनी
खाने के लाले पड़े हैं
और परिवार में
कमाने वाला उसके सिवा और कोई नहीं है।
आप
हैसियत भर मदद दीजिये।

देखा होगा आपने कि
गूंगी की तरह
फेंक जाती है पर्चा आपके पास
पढ़ें आपकी मर्ज़ी , फेंकें आपकी मर्ज़ी
कुछ दें, न दें आपकी दया पर |
आएगी पर्चा उठाएगी
किसी देवी का फोटो दिखाएगी
और बढ़ती जाएगी क़दम-दर-क़दम
वह कहेगी कुछ नहीं।

मैं सवाल करता हूँ अपने से
इस अनिकेत की
विवाह योग्य कन्याएँ कहाँ होंगीं
इस असुरक्षित समय में ?

या ,
संवेदन-शून्य होते जा रहे
समय की रगों को स्पंदित करने के बहाने हैं ये?
या कि ,
एक प्रायोजित योजना है
किसी गुप्तचर गिरोह की?
फिर ,
ऐसी विकट परिस्थितियों में "मौनव्रत"
ख़ैर। और क्या किया जा सकता है।
मै अचंभित हूँ फिर भी।

तीसरे दर्ज़े में ही क्यों ?
पहले-दूसरे दर्ज़े में ज़्यादा मिलता
क्यों नहीं जाती वहाँ ?
मै फिर अचंभित।
अभागिन मौनव्रत तोड़
गरिया रही है मुझे ,
अव्वल और दोयम दर्ज़े के लोगों को
जो पचास सवाल करने पर भी
पचास पैसे भी नहीं निकालते
बेहतर है हददर्ज़ा ही
जहाँ तर्क नहीं संवेदना है
उसके कहने का अर्थ यही था।

मुझे बेहद रंज हुआ
उसका मौनव्रत तोडकर
लगा कि मैनें उस डिब्बे में
उस समय बैठे उन सैकड़ों यात्रियों से
इस तरह की असंख्य अभागिनों पर कायम
उनका विश्वास छीन लिया है।

वह कैसे लौटाऊँ अब
सोच रहा हूँ।
जैसी भी है
संवेदना है तो सही
तीसरे दर्ज़े में अभी बाक़ी
मुझे उसमें सेंध लगाने का
कोई अधिकार नहीं।।