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अभिशप्त / शंभुनाथ सिंह

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पर्वत न हुआ, निर्झर न हुआ
सरिता न हुआ, सागर न हुआ,
क़िस्मत कैसी ! लेकर आया
जंगल न हुआ, पातर न हुआ ।

जब-जब नीले नभ के नीचे
उजले ये सारस के जोड़े,
जल बीच खड़े खुजलाते हैं
पाँखें अपनी गर्दन मोड़े ।

तब-तब आकुल हो उठता मन
किस अर्थ मिला ऐसा जीवन,
जलचर न हुआ, जलखर न हुआ,
पुरइन न हुआ, पोखर न हुआ ।

जब–जब साखू-वन में उठते
करमा की धुन के हिलकोरे,
मादल की थापों के सम पर
भाँवर देते आँचल कोरे ।

तब–तब रो उठता है यह मन
कितना अभिशप्त मिला जीवन,
पायल न हुआ, झाँझर न हुआ,
गुदना न हुआ, काजर न हुआ ।