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अभी-अभी / आलोक कुमार मिश्रा
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देखा मैंने अभी-अभी
व्यस्तता नहीं एकांत बनी बैठी थी
एक बच्ची अपनी माँ की
माँ ढूँढ रही थी खुद को
आँखों में उसकी
अभी-अभी जाना मैंने
धरती नाच रही थी
अपनी ही लय में अपनी ही धुन में
सूरज की नहीं
खुद की परिक्रमा में वह रत थी
सुना मैंने अभी-अभी
गा रही थी नन्ही भूरी चिड़िया
आँख मूँदे गला उठाए
आनंदित हो मंत्रमुग्ध थी प्रकृति
हवा का केश फहराए
अभी-अभी पाया मैंने
बसंत बैठा था मेरे काँधे
किसी तितली की तरह से
मैं इतना ध्यानस्थ सजग हो उठा कि
तितली न उड़ जाए बसंत ओझल न हो पाए।