भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अभी तो चाक पर रक्खे गए हम / जंगवीर सिंंह 'राकेश'
Kavita Kosh से
ग़ज़ल का आख़िरी सफ़्हा बचे हम !
ग़ज़ल के नाम पर क्या कर रहे हम?
ग़ज़ल की क़ब्र में सोये हैं सब ही
किसी ताबूत में रक्खे हुए हम !!!
हमें तो इश्क़ भी तुम से नहीं है !!!
तुम्हें क्यों बारहा फिर सोचते हम
हमारी जान इक मैना में थी, और
उसे ख़ुद ही रिहा भी कर दिए हम
अभी मत सोचिए क्या-क्या बनेगा?
अभी तो चाक पर रक्खे गए हम !!!!
हमीं ख़ुद हैं हमारी मंज़िलें भी
हमारी मंज़िलों के रास्ते हम !
अभी ये हाल है जीते ना मरते !!
थे इससे पहले तो अच्छे भले हम!