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अभी सुबह के चार बजे / हम खड़े एकांत में / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
गर्मी के दिन -
अभी सुबह के चार बजे हैं
सुनी गुटर-गूँ
हाँ, कपोत का जोड़ा जागा
उधर घाट पर
मछुआरों का हाँका लागा
हुईं आहटें -
माँ ने खोले – द्वार बजे हैं
सुनो, पड़ोसी गायक ने
आलाप लिया है
संगत में साधू ने
मंतर-जाप किया है
हिरदय भीतर
वंशी और सितार बजे हैं
बेला की है महक आई
खिड़की से अंदर
एक-एककर उमग रहे
कविता के आखर
कुछ अनबूझे
सुर साँसों के पार बजे हैं