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अमरनाथ के हिम-कपोत / प्रतिभा सक्सेना

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जब नीलकंठ बोलें, मुंडमाल हिले-डोले, गिरिबाला देख चौंक चौंक जाये,
लगे एक-एक मुंड,किसी कथा का प्रसंग लिये भेद कुछ समाये है,छिपाये.
बार-बार कोई बात, भूले सपन की सी याद,मन- दुआरे की कुंडी बजाये,
कभी लागे मुस्काय, नैनन जतलाय़े, पहचानr लगे, याद नहीं आये.



पूछ बैठी माँ भवानी, गिरि-शृंगोंकी रानी, मुंड काहे को पिरोय कंठ धारे,
भूत-प्रेत की जमात चले पसुपति साथ, यह कौन सा सिंगार तुम सँवारे!
क्या बताऊं गिरि-कन्या, मैं हूँ अमर अजन्मा किन्तु तेरी तो मरणशील काया,
जन्म-जन्म रही मेरी, अर्धअंग मे विराजी, तेरा अमर प्रेम मैंने ही पाया.



हर बार नया जन्म, हर बार नया रूप, नई देह धार, मेरी प्रिया आये,
तेरे सारे ही शीष, मैंने जतन से सँजोय राखे, क्रम-क्रम माल में सजाये.
माल हिये से लगाय मैं राखत हूँ गौरा, तोरी जनम-जनम प्रीत की निसानी,
ये तेरी ही धरोहर लगाये हूँ हिये से, बिन तेरे जोग साधूँ, शिवानी.



मेरी मत्युमयी काया, किन्तु प्रीत अविनाशी, मुक्त करो जन्म-मृत्यु चक्र मेरा,
करो देव, वह उपाय तुम्हें छोड़ बार-बार जनम मरण न जासों देय फेरा.
अमर-कथा चलो प्रिया, तुम्हें आज मैं सुना दूँ चिर रहे मन-भावनी ये काया,
चलो कहीं एकान्त, जहाँ जीव अनधिकारी बोल कानों से ना सुन पाया.



जहाँ हिमगिरि की शीत, बियाबान -सूनसान, कोई पंखी भी पंख नहीं मारे,
अति रम्य गुहा हिमगिरि की शीतल-सुहावन तहाँ गौरा संग शंकर सिधारे.
सावधान सब देखा कोई जीवधारी न हो, कहीं सुन ले जो दुर्लभ कहानी.
और अजर-अमर मनभावन अमल देह पा ले न कोई भी प्राणी.



मैं मगन सुनाऊँ, बस एक इहै चिन्ता तुम सबद -सबद ध्यान लगा, पाओ
हुइ के सचेत मन धारि सुने जा रहीं, जताने को हुंकारा दिये जाओ.
पान करने लगीं गौरा वह अमृतमयी वाणी, शीश काँधे से पिय के टिकाये,
धरा- गगन को पावन बनाय बही जा रही स्वर- धारा संभु गंग-सी बहाये.



मंद थपकी लगाय निज नेह को जतावैं संभु, मगन भवानी नैन मूँदे,
पाय अइस बिसराम तन अलस, विलस मन, भीगि रहीं पाय रस बूँदें.
अमर कथा को प्रभाऊ,दुई कपोत अंड रहे तहाँ तामें जीव विकसि गये पूरे,
दुइ नान्ह-नान्ह बारे, कान पड़े भेद सारे अइस जिये जइस अमरित सँचारे,



अंड फोरि निकरि आये, खुले नैन, चैन पाये, हुँहुँक हुँहूँक धुन गुहा में समाई
जइस कोई हुँकारा भरे रुचि सों कथा को सुनि सोई धुनि कानन में आई.
आपै आप हुँकारा सुनि गिरिजा हरषानी, बिन श्रम सुनै लाग उहै बानी.
विसमय में ऊब-डूब,कोऊ चमत्कार जानि मौन धारि बैठीं सुने शिवानी.



अनायास लगीं पलकें,अइस छाय गई निंदिया,सुनिबे को भान डूबि गवा सारा,
हूँ-हुँहुँक् का हुँकारा, गूंज रहा हर बारा, बहे पावनी कहानी की धारा.
पूरन कथा तहूँ, हुँकार धुनि छाई गौरा सोय रहीं संभु चकियाने,
सावक निहारि भेद जानि गये पसुपति, पै सोचि परिनाम अकुलाने.



 अनगिन बहाने होनहार हेतु होवत हैं, जौन रचि राखत विधाता,
 पारावत दोउ अमरौती पाय जागे, कौन पुण्य को प्रभाव अज्ञाता.
 नित्य वे निवासी सिवधाम के कपोत दुइ, अमल-धवल वेष धारे,
तीरथ के यात्री हरषि तिन्हें हेरत, प्रदक्षिणा-सी देत नित सकारे.



गिरिजा की प्रीत बार-बार नव-रूप लेति, हिये धरि संभु अविनासी.
हिम-धवल कपोत अमर हुइगे प्रसाद पाइ अमरनाथ धाम के निवासी.
ते ही कपोत दोऊ, आज लौं लगावत हैं अमरनाथ की नित परिक्रमा,
सरल सुभाव महादेव सह गौरी को मनसा ध्यान लाये न किं जनः!