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अमावस की अँधेरी में / महेन्द्र भटनागर

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नभ के किन परदों के पीछे आज छिपा है चांद ?

मैं पूछ रहा हूँ तुमसे ओ
नीरव जलने वाले तारो !
मैं पूछ रहा हूँ तुमसे ओ
अविरल बहने वाली धारो !

सागर की किस गहराई में आज छिपा है चांद ?
नभ के किन परदों के पीछे आज छिपा है चांद ?

मैं पूछ रहा हूँ तुमसे ओ
मन्थर मुक्त हवा के झोंको !
जिसने चांद चुराया मेरा
उसको सत्वर भगकर रोको !

नयनों से दूर बहुत जाकर आज छिपा है चांद ?
नभ के किन परदों के पीछे आज छिपा है चांद ?

मैं पूछ रहा हूँ तुमसे ओ
तरुओ ! पहरेदार हज़ारों,
चुपचाप खड़े हो क्यों ? अपने
पूरे स्वर से नाम पुकारो !

दूर कहीं मेरी दुनिया से आज छिपा है चांद !
नभ के किन परदों के पीछे आज छिपा है चांद ?