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अमीरी मेरे घर आकर मुझे आँखें दिखाती है, / राजेन्द्र वर्मा
Kavita Kosh से
अमीरी मेरे घर आकर मुझे आँखें दिखाती है,
ग़रीबी मुस्कुराकर मेरे बर्तन माँज जाती है ।
भले ही सूर्य बन्दी हो गया अट्टालिकाओं में,
अँधेरो! मेरे घर लेकिन अभी भी दीप-बाती है ।
चला है जब से मोबाइल, फ़क़त बातें-ही-बातें हैं,
न आना है, न जाना है; न चिट्ठी है, न पाती है ।
विपर्यय ने मेरे घर का किया है अधिग्रहण ऐसे,
विभा आती है लेकिन, उल्टे-पैरों लौट जाती है ।
अतिथि-सत्कार करने में मेरी हालत हुई पतली,
पर उसके मुख पे रत्ती-भर नहीं संतुष्टि आती है ।
ये जगती स्वार्थ की चेरी, बदल जाती है क्षण-भर में,
कभी हिय से लगाती है, कभी यह दुरदुराती है ।
दुखों से दाँत-काटी दोस्ती जब से हुई मेरी,
कि सुख आये न आये, जि़न्दगी उत्सव मनाती है ।