भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अमीरी मेरे घर आकर मुझे आँखें दिखाती है, / राजेन्द्र वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अमीरी मेरे घर आकर मुझे आँखें दिखाती है,
ग़रीबी मुस्कुराकर मेरे बर्तन माँज जाती है ।

भले ही सूर्य बन्दी हो गया अट्टालिकाओं में,
अँधेरो! मेरे घर लेकिन अभी भी दीप-बाती है ।

चला है जब से मोबाइल, फ़क़त बातें-ही-बातें हैं,
न आना है, न जाना है; न चिट्ठी है, न पाती है ।

विपर्यय ने मेरे घर का किया है अधिग्रहण ऐसे,
विभा आती है लेकिन, उल्टे-पैरों लौट जाती है ।

अतिथि-सत्कार करने में मेरी हालत हुई पतली,
पर उसके मुख पे रत्ती-भर नहीं संतुष्टि आती है ।

ये जगती स्वार्थ की चेरी, बदल जाती है क्षण-भर में,
कभी हिय से लगाती है, कभी यह दुरदुराती है ।

दुखों से दाँत-काटी दोस्ती जब से हुई मेरी,
कि सुख आये न आये, जि़न्दगी उत्सव मनाती है ।