रसिक चाँद जब चुपके- छुपके
उतर रात में नभ से आया
एक झरोखे से जब झाँका
दिव्य चाँद को सोते पाया
चन्द्र भाल पर जड़कर चुम्बन
गहन नींद से उसे जगाया
झरी चाँदनी पोर -पोर से
नभ का तब चंदा शरमाया
बोला- तुम्हीं चन्द्रिका मेरी
तुम्हें ढूँढने ही मैं आया
तरस रहे थे अधर प्यास से
तुम्हें चूमकर हर सुख पाया।
मुझे नहीं अम्बर में रहना
मुझको अपने कंठ लगालो
अम्बर में मैं निपट अकेला
आज अंक में मुझे छुपालो