अम्मा के लिए / मुकेश प्रत्यूष
अम्मा के लिए
(1)
टिमटिमा रहे हैं न जो आकाश में
आंखें है पूर्वजों की
नहीं होता है जब सूरज
तब जाग कर सारी रात
देखती हैं - कुछ गलत तो नहीं कर रहे हम लोग
मैं भी ऐसे ही देखा करूंगी
तुम्हें
जब नहीं रहूंगी तुम्हारे पास
छलछला जाते थे हम
यही बात बताई मैंने
ठठा उठे बच्चे
दादी आपको मूर्ख बनाती थी पापा
ग्रह हैं तारे आंखे नहीं
कैसे कहूं
बात ज्ञान की नहीं
आस्था की थी.
(2)
टेक आफ से लेकर लैंडिंग तक
खब्तुलहवास रहता हूं
अक्सर बताते हैं सहयात्री
बच्चे दिखते रहे कब तक दर्शक-दीर्घा में
एयर-होस्टेस ने की कितनी देर प्रतीक्षा
ले लूं इअरपफोन
या बता दूं कि शाकाहारी या मांसाहारी हूं मैं
कुछ पता नहीं
बस खिड़की से मुंह सटाए आक्षितिज तलाशता रहा किसी को
इन्हीं बादलों को दिखाकर बचपन में बताया था मां ने
ज्यादा दूर नहीं बस जा रही हूं इन्हीं के पार
खाली न हो जाए स्वर्ग-लोक
इस डर से दिए नहीं जाएंगे मां को आने की इजाजत
लेकिन देखूंगी तुम्हे हर रोज
क्या कहूं मैं किसी को
लाख समझाउंफ खुद को
मानने को जी नहीं करता
कि झूठ कहे थे मां ने।