अरक्षित / कुमार विकल
वे रोज़ आते हैं
काले नक़ाबों में, चिकने शरीर ,लम्बे बलिष्ठ
पहचाने नहीं जाते.
मैं उन्हें पकड़ने की कोशिश करता हूँ
तो हाठॊं से फिसल जाते हैं
और भाग जाते हैं अँधेरे में अचीन्हे,
इस तरह वे रोज़ आते हैं.
और मैं भयातुर प्रतीक्षा में
अपनी सुरक्षा के उपाय सोचता हूँ
जबकि मैं जानता हूँ
कि आत्मरक्षा के समूचे शस्त्र
जो मुझको विरासत में मिले थे
पुराने पड़ गये हैं,कुण्ठित हो चुके हैं
अब मेरा सब कुछ अरक्षित है
मेरा शरीर शरीर की संभावनाएँ
मेरे संकल्प, आकांक्षाएँ,स्थापनाएँ
अस्तित्व की सहजताएँ
इस तरह वे रोज़ मेरी नंगी भुजाओं से निकल जाते हैं
और मेरे हाथों में
अपने चिकने शरीरों की मतली—भरी दुर्गंध छोड़ जाते हैं
इस दुर्गंध को लेकर मैं किधर जाऊँ
बाहर जाऊँगा तो लोग भाग जाएँगे
बच्चे दूध पीना छोड़ देंगे.
और जब पार्क के सारे गुलाबों पर
मेरे हाथों की दुर्गंध फैल जाएगी
तो लड़कियाँ उदास हो जाएँगी
और जब मेरी माँ को
मेरे शरीर से अपने दूध की गंध नहीं आएगी
तो वह मुझको पहचानने से इन्कार कर देगी
नहीं,मैं बाहर नहीं जाऊँगा
भीतर तो मैं अरक्षित हूँ
बाहर अजनबी बन जाऊँगा.
लेकिन—
मैं इन सारी आशंकाओं के साथ
बाहर आता हूँ
और एक जलूस में शामिल हो जाता हूँ
नारे लगाता हूँ
और अपने शरीर को सुरक्षित पाता हूँ.
मेरी माँ मुझे स्वीकार लेती है
काले नक़ाबपोशों के रहस्य बतलाती है
और उनसे लड़ने के तरीक़े सिखाती है.