अरण्यरोदन नहीं है यह चीत्कार-2 / अशोक कुमार पाण्डेय
वहाँ बहुत तेज़ रोशनी थी
इतनी कि पता ही नहीं चलता
कि कब सूरज ने अपनी गैंती चाँद के हवाले की
और कब बेचारा चाँद अपने ही औज़ारों के बोझ तले
थक कर डूब गया
बहुत शोर था वहाँ
सारे दरवाज़े बंद
खिड़कियों पर शीशे
रौशनदानों पर जालियाँ
और किसी की श्वासगंध नहीं थी वहाँ
बस मशीने थीं और उनमें उलझे लोग
कुछ भी नहीं था ठहरा हुआ वहाँ
अगर कोई दिखता भी था रुका हुआ
तो बस इसलिए
कि उसी गति से भाग रहा दर्शक भी...
वहाँ दीवार पर मोरनुमा जानवर की तस्वीर थी
गमलों में पेड़नुमा चीज़ जो
छोटी वह पेड़ की सबसे छोटी टहनी से भी
एक ही मुद्रा में नाचती कुछ लड़कियाँ अविराम
और कुछ धुनें गणित के प्रमेय की तरह जो
ख़त्म हो जाती थीं सधते ही…
वहाँ भूख का कोई संबध नहीं था भोजन से
न नींद का सपनों से
उम्मीद के समीकरण कविता में नहीं बहियों में हल होते
शब्द यहाँ प्रवेश करते ही बदल देते मायने
उनके उदार होते ही थम जाते मोरों के पाँव
वनदेवी का नृत्य बदल जाता तांडव में
और सारे गीत चीत्कार में
जब वे कहते थे विकास
हमारी धरती के सीने पर कुछ और फफोले उग आते