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अरण्यरोदन नहीं है यह चीत्कार-3 / अशोक कुमार पाण्डेय

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हमें लगभग बीमारी थी ‘हमारा’ कहने की
अकेलेपन के ‘मैं’ को काटने का यही हमारा साझा हथियार
वैसे तो कितना वदतोव्याघात
कितना लंबा अंतराल इस ‘ह’ और ‘म’ में

हमारी कहते हम उन फैक्ट्रियों कों
जिनके पुर्जों से छोटा हमारा कद
उस सरकार को कहते ‘हमारी’
जिसके सामने लिलिपुट से भी बौना हमारा मत
उस देश को भी
जिसमे बस तब तक सुरक्षित सिर जब तक झुका हुआ
...और यहीं तक मेहदूद नहीं हमारी बीमारियाँ

किसी संक्रामक रोग की
तरह आते हमें स्वप्न
मोर न हमारी दीवार पर, न आँगन में
लेकिन सपनों में नाचते रहते अविराम
कहाँ-कहाँ की कर आते यात्राएँ सपनों में ही…
ठोकरों में लुढ़काते राजमुकुट और फिर
चढ़कर बैठ जाते सिंहासनों पर…
कभी उस तेज़ रौशनी में बैठ विशाल गोलमेज के चतुर्दिक
बनाते मणि हथियाने की योजनाएँ
कभी उसी के रक्षार्थ थाम लेते कोई पाषाणयुगीन हथियार
कभी उन निरंतर नृत्यरत बालाओं से करते जुगलबंदी
कभी वनदेवी के जूड़े में टाँक आते वनफूल…

हर उस जगह थे हमारे स्वप्न
जहाँ वर्जित हमारा प्रवेश!