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अरे बरगदों / एक बूँद हम / मनोज जैन 'मधुर'
Kavita Kosh से
किसको दिया
पनपने तुमने अरे बरगदों, अपने नीचे
तुमने किसको दिया सहारा
किसको धूप जरा सी बाँटी
कब तुमने, नन्हें अंकुर को
जमने को दी थोड़ी माटी
लागर के हिस्से की किरणें
पीते रहे आँख को मींचे
लट लटकाकर, खोद जमीं को
पीते रहे जड़ों का पानी
दोहरे मापदण्ड अपनाकर
होती नहीं तुम्हें हैरानी
आँखों में पलते, सुख सपने
तुमने कब किस किस के सींचे
परिधि तुम्हारी, मरूथल जैसी
मृग तृष्णा-सी प्यास जगाती
मन हिरना की आशाओं को
दूर दूर तक भटकाती
सच बतलाएँ, तुम्हें देखकर
आखिर कितनी मुट्ठी भींचे