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अरे मेरे करम के खारे जल गए / हरियाणवी
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हरियाणवी लोकगीत ♦ रचनाकार: अज्ञात
अरे मेरे करम के खारे जल गए एअर मोमी दूदाभ
अरे मेरे करम के सुनरा मर गए रूठ गए मनिहार
बहू री मेरी मत रोवै मुझे लगा री लाल का दाग
मां अरी धौले धौले पहर कपड़े राड़ा भेष भरावै
अरी चले सूनरा के मेरी नाथे उतरवाये
अरी देही जले जैसे कांच की भट्टी पकावे
अरी बिच्छू ने मारा डंक लहर क्यूं न आवे
अपना मन समझावन लागी दो नैनों में भर आया पानी
अरी सासू जब धसूं महल में दरी बिछौना सूना
कुछ एक दिनां की ना है मुझे सारे जनम का रोना
अरे यानी थी तब रही बाप के मुझे सोच कुछ न था
अब कैसे कटै दिन रैन री मुझ को एक दिना की ना है