अर्थ हीन होता सृजेता का सृजन / धीरेन्द्र अस्थाना
१.
श्रृंगार शून्य होती सुषमा
संशय हीन होता
यह जग ,
अन्तर्गगन में
न विचरण करते
विचार चेतन के विहग ;
कल्पना हीन होता यह मन !
यदि होते न लोचन !
२.
न दीनता प्रति
उर में उमड़ती दया,
न जन्मती करुणा
उठता न भाव कोई,
क्लांत होता न अत्न,
देख मानव की तृष्णा !
न विछिप्त होता अंतर्मन ,
यदि होते न लोचन !
३.
न कोई कहता ,
प्रतीक्षा में पथराई आँखें ,
न कोई दिवा स्वप्न देखता ,
न होता कोई,
जीवन में अपना - पराया ,
न किसी को दृष्टिहीन कहता !
भावना शून्य होते जड़-चेतन ,
यदि होते न लोचन !
४.
विटप सम
होता मानव जीवन
अर्थ हीन होता कर्म,
उदरपूर्ति
हेतु होते व्यसन,
पर न होता कोई मर्म!
कहाँ होता चिन्तन-मनन,
यदि होते न लोचन!
५.
देख पर सुख,
न होती ईर्ष्या ,
न उपजता कोई विषाद,
रंग-हीन, स्वप्न-हीन
होता जीवन,
न होता आपस में
कोई विवाद!
हर्ष-द्वेष रहित होता निश्छल मन,
यदि होते न लोचन !
६.
न मानव करता,
मानवता पर अत्याचार,
पुष्प-प्रस्तर का मात्र ,
होता मृदुल-अश्मर प्रहार,
दिवस निशा का बोध,
कराता मात्र यह,
नीरस स्वर-संचार!
रस हीन होते ये धरा-गगन,
यदि होते न लोचन!
७.
किस हेतु होती अभिव्यक्ति
होता न जीवन का आधार,
घायल होती रहती मानवता,
कौन किस पर करता उपकार,
तरसती दया, करुणा रोती,
प्रकट न होता कोई आभार!
निष्प्राण तुल्य होता यह जीवन,
यदि होते न लोचन !
८.
व्यर्थ होता कलियों पर
भ्रमरों का गुंजन ,
व्यर्थ होता ऋतुराज का ,
धरा पर आगमन ,
व्यर्थ होता कानन में ,
मयूरों का नर्तन !
कौन सुनता उरों का स्पंदन
यदि होते न लोचन
९.
श्रृंगार-सुषमा हीन,
पुष्प पल्लवी होती,
यह प्रकृति सुन्दरी
विधवा सी रोती,
हेतु अस्तित्त्व यह,
मौन धरा सोती!
अर्थ हीन होता सृजेता का सृजन,
यदि होते न लोचन!