अलबत्ता इसे प्रेम / सुधीर सक्सेना
एक दिन हम पाते हैं
कि अचानक माथे पर उभर आया है लाल गूमड़
और बहुधा वह ताउम्र बना रहता है
कभी फ़िक्र तो कभी शगल का बायस
या कि एक दिन हम पाते हैं
कि अचानक मुंडेर पर उग आया है अब्ज़ा
और कमबख़्त सूखने का नाम ही नहीं लेता
बेतरह तीखे धान के बावज़ूद
याकि एक दिन हम पाते हैं
कि बिना रोशनदान के कमरे में
तिपाई पर रखी रकाबी में
कहीं से आ टपका है पारा चमकीला आबदार
मुँह बिराता हुआ ज़माने को
अलग-अलग आकृतियों में हठात
कि औचक खनकने लगे हैं बरसों से उदास ग़ुल्लक में सिक़्क़े
और उसकी खनक में है एक अलग ही सिम्फ़नी
याकि एक दिन हम पाते हैं
कि अचानक टिक-टिक करने लगी है
किन्हीं चपल उँगलियों की करामत से
बरसों से बंद पड़ी हमारी कलाई घड़ी,
होने को कुछ भी हो सकता है और
गिनाने को और भी बहुत कुछ गिनाया जा सकता है
मगर, बताएँ तो इन्हें आप क्या कहेंगे
कोई कुछ भी कहे
मगर आप चाहे तो कह सकते हैं बिला शक
अलबत्ता इसे प्रेम.