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अलौकिक गान / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

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धारा-कालिमा रही रुधिर से धुलनेवाली;
भव-करालता देख किलकिलाती थी काली।
विपुल-मनुज-वध श्रेय-बीज था बोनेवाला;
मंगल-मूलक महासमर था होनेवाला।
शिव-मुंड-माल की कामना मूर्तिमान थी हो रही।
धीरे-धीरे थी वसुमती बची धीरता खो रही।
काल-भाल का बंक अंक था विपुल कलंकित;
लोक-पाल थे चकित, सकल सुरपुर था शंकित।
बनी धीर-गंभीर विश्व की शक्ति खड़ी थी;
भुवन-विजयिनी भूति भ्रांति-निधि-मधय पड़ी थी।
थे कान कमलभव के खड़े, यम कपाल था ठोंकता;
भव किसी अलौकिक वदन को था आकुल अवलोकता।
इसी समय कर सकल अवनि-मंडल को मुखरित
एक अलौकिक गान हुआ विज्ञान-गौरवित।
स्वर-लहरी थी सरस, मधुर धवनि मुग्धकरी थी;
अति अनुपम थी तान, ललित लय सुधा-भरी थी।
पावन-पदावली थी परम-पद-पावनता-पालिका;
कमनीय-कला थी पय-सलिल विमल-विवेक मरालिका।
सुन यह मोहक गान विमोहित हुए त्रिशूली;
वीणा-वादन-रता करज-संचान भूली।
विधि-विमुग्धता बढ़ी, बिधा नारद का मानस;
बरस गया सुर-सिध्द-वृंद पर परम मधुर रस।
स्वर-राग-रागिनी के सधो, साधों भरीं अतीत में;
आई सजीवता सरसता सकल लोक-संगीत में।
कर मुरली का नाद मोहिनी जिसने डाली,
मन-मंदिर में पूत-प्रेम-प्रतिमा बैठाली।
जगती-तल को मोह-मोहकर मधु बरसाया।
सुर, नर, मुनि क्या, खग-मृग तक को मुग्ध बनाया।
उसके पावनतम कंठ से कढ़े अलौकिक गान यह;
सारे अशांतिमय ओक में गया शांति का सोत बह।
टली भ्रांति की भ्रांति, प्रफुल्लित भव दिखलाया;
परम कलित हो गयी समर की अकलित काया।
रुधिर-धार से सिंची लोक-हित-बेलि निराली;
करवालों से गयी शांति-ममता प्रतिपाली।
मानव-मानस की मत्तता क्रान्ति महत्ता से भरी;
भुव-भार-भूत-संहार-मिष भव-विभूति बन अवतरी।
है अतीत का कंठ आज भी उसे सुनाता;
बना-बना बहु मुग्ध स्वर्ग-रस है बरसाता।
स्वर-सप्तक है समय-विपंची में सरसाता;
अवसर पर जन-श्रवण-रसायन है बन जाता।
करता है मानव-धर्म के भावों का एकीकरण;
उसके अपूर्व आलाप से परिपूरित वातावरण।
देश-काल-अनुकूल सदाशयता में ढाले;
सुने धारा के विविध धर्म-संगीत निराले।
किंतु नहीं वह कलित कला उनमें दिखलाती,
जो बन पाती अखिल लोक की प्रियतम थाती।
इतनी ऊँची कब उठ सकी उनकी स्वर-लहरी ललित,
जिसके बल से सब अवनि-तल-हृत्तांत्री होती धवनित।
मानवता की मंजु गूँज जिसमें न समाई;
समता की गिटकिरी मधुर जिसमें न सुनाई।
जो कर कर रस-दान सरसता नहीं दिखाता;
घन-समान बन सकल धारातल-जीवन-दाता;
जो देश-जाति द्विविधा-जनित मानस-मल धोता नहीं,
वह विदित धर्म संगीत हो सार्वभौम होता नहीं।
जिसकी ध्वनि में विश्वबंधुता ध्वनि हैं पाते,
हैं जिसके आरोह लोक-ममता में माते,
जिसका प्रिय अवरोह भुवन-मानस-विजयी है,
जिसकी महिमा-भरी मूर्च्छना मुक्तिमयी है,
जिसकी रंजनता अवनि-जन-रंजन एक समान है,
वह गीता का भव-धर्म-धन परम अलौकिक गान है।