अवतरण / कृष्णावतरण / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
स्थान: कारागार (मथुरा): समय: निशीथ (भाद्रकृ. 8)
विषय: प्रकृति ओ कथावस्तु युग्म वर्णन
पावस ऋतु छल जमल, जलद-दल उमड़ल ओहिना
कंस क शासन पाबि असुर - गण धमकल जहिना
कादवमय छल मास भादव क कलुषित सब थल
जन-जीवन मथुरा क बीच छल जहिना दल - मल
कालिन्दी धारा उपटि व्रज मंडल पर व्याप्त छल
शूरसेन जनपद उपर असुर दबादबा व्याप्त छल
दुर्दिन सहजहिँ ताहू पर ई पक्ष अन्हरिया
प्रकृति उत्कटे कंस, दोसर वयसहुँ नवतुरिया
बाट - घाट नहि बूझि पथिक जक - थक छथि ठाढ़े
कंस - राज्य मे अन्धकार उचिते अछि गाढ़े
दृष्टि निरर्थक भेल अछि, ज्योति क दर्शन नहि कतहु
दुष्ट शासन क कारणेँ रहय न लोक - मत क पतहु
मधुरा नगरी नाम किन्तु नहि मधुँ रस बाँचल
शंकर नामहु की न रुद्र प्रलयंकर नाचल?
रहितहुँ कंस नृपाल ध्वंस नृ - कपालक करइछ
नीर न यमुना - तीर नोर टा जोरेँ बहइछ
वन्दी विरुद क गान की करत? बनल सभ वन्दिए
कारा के कर पहिरते सभ कारा - गृह अन्धिए
क्षितिज गर्भ - गृह मे छथि वन्दे चन्द्र - चन्द्रिका
घर अभ्यन्तर वन्दी जनि बसुदेव - देविका
अछि बहैत सन - सन कय पुरिबा हवा झोंक सँ
असुर क प्रहरी ठहकि रहलि जनि जरठ ठोंठ सँ
घर-घर दबकल दबदबेँ सूतल नगर क लोक अछि
अन्यायि क आतंक सँ भूतल व्यापल शोक अछि
टिम - टिम करइछ मेघ - फाँक दय तारा कखनहुँ
भीत - चित्त दम्पती क उर मे आशा एखनहुँ
मेघ - पटल उमड़ल छल, नहु - नहु उखड़ल जाइछ
कस क अत्याचार क घट भरि उछलल जाइछ
मध्य निशीथक सूचना दैत पड़ल - डंका मने
कंस विनाशक संघटन होइछ ‘ध्वनि शंका’ कने
महल - कुटी पथ - गली सबहु थल सुन्नसान अछि
जेना नगरवासिक चित नहि हर्ष क निसान अछि
सज्जन जत गिरि गुफा बन्द, खाली मकान अछि
मुह अछि बन्द प्रजा क, रजायसु मात्र कान अछि
गान न ककरहु कण्ठ बस, कानब केवल कान पड़
झन - झन मात्रे शब्द खर टुटल तार नहि तान भर
क्षितिज मूल दिस सहसा आभा नूतन झलकल
दिव्य गर्भ केर ज्योति देवकी मुख पर पसरल
अंधकार हटइछ नहु - नहु किछु सुझा’ पड़ै अछि
वसुदेव क उर मे उछाह किछु बुझा’ पड़ै अछि
कृष्ण अष्टमी चन्द्र केर उदय पूब सम्भाविते
अष्टम सुत देवकि - उदर कृष्ण चन्द्र छथि आगते
गगन मध्य रोहिणी - अंक समुदित शशांक छथि
देवकी क कोरहि उपगत हरि व्रज - मृगांक छथि
नखत राशि सँ जेना गगन आरती उतारथि
स्तुति क ज्योति सँ वसुदेवो भावना सजाबथि
करेँ चतुर्दिश विमल कय शशि कयलनि जग केँ सुखी
कयल चतुर्भुज मुदित अति जनक - जननि केँ, जे दुखी
तिमिर निकर बिच जेना सुबाकर शुचि - रुचि उगइछ
कोमल रश्मि - राशि सँ कैरव विकसित करइछ
असुर क उत्पात क मध्यहि श्रीहरि अवतरइछ
विमल चरित सँ साधु - संत केँ प्रमुदित करइछ
गगन चान सकलंक छथि, रजनी मात्र क गात्र सजि
व्रज क चान अकलंक छथि, निश - दिन अग जग रुचि अरजि
नभ - गवाक्ष सँ हुलकी दै’ अछि तारा जखनहिँ
चौंकि चमकि चकमक चान क किरनेँ छकि तखनहिँ
छपि जाइछ नभ नीलिमा क आवरण मोहमय
तहिना वन्दी - गृह प्रकाश सँ पहरु क विस्मय
थाह न पाबय की एतय ककर ज्योति वलयित बलित
मूढ निगूढ न बुझि सकय व्यामोहेँ व्यापित जडित
अन्तर जत जागरण, बाह्म तत निद्रा मुद्रण
वन्दी - गृह हलचल, पुनि कलबल सुप्त नगर जन
हलुकायल वेदना बाढ़ि दम्पति उर तीरे
निशा गभीरे, कालिन्दी क नीर गम्भीरे
जननि - जनक उर पट खुजल नूतन मूर्ति क कल्पना
कंस क दृग - पुट मुनल जत सपन भयानक जल्पना