अवमूल्यन / दीप्ति गुप्ता
लगता है सब कुछ बदलने वाला है
तेरा मेरा ढाँचा बेमानी,
चूने गारे का मायने वाला है;
कंकड़ – पत्थर से बने रेतीले ढाँचे में,
वे मन्दिर, मस्जिद, चर्च और गुरूद्वारा बसाते हैं,
लेकिन हाड़ मांस से बने स्पन्दित ढाँचे में
दुर्भावना की दुर्गन्ध बसाते हैं!
क्यों नहीं देख पाते वे, मन्दिर को.......?
क्यों नहीं महसूस पाते वे मस्जिद को.....?
तेरे मेरे ढाँचे में...............!
उसे क्षत विक्षत करते उनके हाथ
क्यों नहीं ठहर जाते हैं.......?
रहीम का खून कर देने पर,
उसमें मरता ‘मुहम्मद’ नजर क्यों नहीं आता........?
श्याम का सीना चाक कर देने पर,
उसमें आहत ‘राम’ नजर क्यों नहीं आता........?
गुरविन्दर के तलवार पार कर देने पर,
उसमें ‘वाहेगुरू’ का इन्तकाल
नजर क्यों नहीं आता............?
उन्हें कुछ हो गया है - या फिर...
मुझे कुछ हो गया है!
उन्होंने सोचना समझना छोड़ दिया है,
या - फिर, मैंने ही अधिक सोचना शुरू कर दिया है!
उनकी हैवानियत ने उन्हे पागल बना रखा है
और मुझे मेरी इंसानियत ने!
धर्म के नाम पर आतंक फैलाते
उन्हें देर नहीं लगती,
वे अपने को पुण्यात्मा, पाक,
परमभक्त और धार्मिक समझते हैं,
पर, सच्चे धर्म का क्या धर्म से
कभी वैर होता है..........?
स्वास्थ्य का क्या स्वास्थ्य से
कभी विरोध होता है.......?
अधर्म अनेक हो सकते हैं,
रोग अनेक हो हो सकते हैं,
पर, धर्म सदा एक होता है!
जैसे, स्वास्थ्य एक होता है,
सारे जहाँ का सूरज एक होता है,
सारी सृष्टि का चाँद एक होता है,
वैसे ही मानवता का धर्म एक होता है!
कभी वह राम बन सद् गुणों का पाठ पढ़ाता है,
तो कभी, मुहम्मद बन नेकियों का सबक सिखाता है,
तो कभी, ईसा के रूप में शान्तिदूत बन आता है!
पर, हे दानव! तूने उसे मन-मन्दिर की
चारदीवारी से निकाल -
पत्थरों की चारदीवारी में कैद कर
सीमित बना दिया है!
अपनी दृष्टि, अपनी मति के अनुरूप-कुरूप...!
वह ‘असीमित’ तेरी धर्मान्धता,
कट्टरता-जड़ता की सीमाओं में जकड़ा
घायल हो रहा है...!
कभी राम-रहीम, कृष्ण-करीम के झगड़ों में,
तो कभी राधा- रेशमा के विलाप में ..!
अरे, ओ झूठे! बन्द कर, इस
धार्मिकता के ढोंग को,
बन्द कर इस पाशविकता के शोर को,
ग़र, तू सच्चा पुजारी है, तो तुझे
रहीम में राम नजर आयेगा!
ग़र, तू सच्चा मौलवी है, तो
तुझे किशन में क़रीम नजर आयेगा!
फिर सौलोमन और सुलेमान में
अन्तर नहीं रह जायेगा,
उठ! क्यों झिझकता है?
तिलांजलि दे तीरों तलवार को
रोक ले दिल पे हर वार को
अंजाम दे बिलखती मानव पुकार को!