अवसर का गान / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास
1.
नींद ले रही है भोर की धूप धान पर शीश रखे
यहाँ कार्तिक के खेत में शांत गाँव की तरह
मैदान की घास की गंध उसकी छाती में-
आँखों में उसकी शिशिर की महक
देह के स्वाद की कथा कहती,
उसके स्वाद के अवसाद से पक उठा है धान।
शाम कोप्रकाश आकर नष्ट कर देगा उसकी साध का समय।
चारों ओर अब सुबह-
धूप का नरम रंग शिशु के गाल की तरह लाल,
मैदानी घास पर शैशव का घ्राण-
गाँव-टोले के रास्तों पर क्लान्त उत्सव का आया है आह्वान।
चारों ओर झुक आई फ़सल,
उसके स्तनों से बूँद-बूँद टपक रहा है शिशिर का जल,
दूर-दूर तक फैली सरसों की गंध रह-रह कर तिरती आ रही
उल्लू और चूहों की बू से भरे हमारे भण्डार के देश में।
झुक आती है देह-धूप यहाँ धान की लाली बनकर
धूप आकर चली जाती है उसके होंठों को चूमकर।
आह्लाद के अवसाद से भर उठता है मेरा शरीर,
चारों ओर छाया, धूप, खण्ड कण, कार्तिक की भीड़
आँख की पूरी भूख मिट जाती है यहाँ, हो रहा है यहाँ स्निग्ध कान
मोहल्ले टोले की देह पर लगी हुई है आज
रूपशाली-धान बनाती रूपसी के देह की गन्ध।
मैं उसी सुन्दरी को देख लेता हूँ-झुकी हुई है नदी के इस पार
प्रसव में अब देर नहीं-रूप छलक पड़ता है उसका-
शीत आकर नष्ट कर जायेगी उसे।
फिर भी आज चुकी नहीं साल की नयी उम्र
खेत-खेत में झर रहा कच्ची धूप हाँड़ी का रस
मधुमक्खी की गुनगुन की तरह यूँ ही हो रही है आवाज़ बहुत
सुबह धूप की बेला में, अलसाई आभा की बेला।
पेड़ की छाँव तले मदिरा पर किस भांड ने रचा था छन्द।
उसकी सारी कविता को आज पढ़ा जायेगा, आखि़री पन्ने तक
राज्य-जय और साम्राज्य की बातें भूलकर
माटी के ढेरों तले जो मद दबा है निकाल लेंगे उसकी शीतलता
बुला लेंगे मोहल्ले-टोले की विवाहयोग्य कन्याओं को।
मैदान की ढलती धूप में नाच होगा-
शुरू होगा हेमन्त का स्निग्ध उत्सव।
हाथ में हाथ लिए गोल चक्कर में घूम-घूमकर
कार्तिक की मीठी धूप में हमारा मुख झुलसेगा
बाली धान की गदराई बाली के रंग और स्वाद से भर जायेगी हम सबकी देह
न होगा कोई नाराज़ हमें देखकर, कोई नहीं जलेगा भुनेगा हमें देखकर-
हमें फुर्सत नहीं है ज़्यादा
प्रेम और आह्लाद का अलस समय हम लोगों का बीत जाता है सबसे पहले
दूर, नदी की तरह पुकार का एक अन्य घ्राण-अवसाद
बुला लेता है हमें और उठा देता है हमें थका सिर और सुस्त हाथ।
तब सरसों की गंध खेत से उड़ जाती है धूप गिरने पर।
आई है शाम अपनी शान्ति, सादे राह धरे,
तब रुक जाता है आलसी गाँव वालों के खेत का तमाशा-
हेमन्त का प्रसव हो गया है, आखि़री सन्तान सफे़द मरे हरसिंगार के बिछौने पर,
शराब की बूँद ख़त्म हो गयी है इस खेत की मिट्टी के भीतर
सारी हरी घास हो गई है सफे़द, हो गया है आकाश धवल,
चला गया है गाँव-टोलों की अविवाहित युवतियो ंका दल!
2.
बूढ़े उल्लू कोटर से बाहर निकल आये हैं
अंधकार को देखकर मैदान के मुख पर,
हरे धान के नीचे-माटी के भीतर चले गये हैं चूहे
झोपड़ी से चले गये हैं खेतिहर,
सरसों के खेत के पास आज रात हममें जागी है पिपासा
उर्वर समतलों पर हम लोग खोजते नहीं हैं मरने का स्थान,
प्रेम और उसकी चाहत का गान
हम लोग गाते-फिरते हैं मोहल्ले-टोले में भांड़ों जैसे
धान की फ़सल में जिनका लगा रहता है मन
और जो उपेक्षा कर सकते हैं साम्राज्य की
जो अवहेलना कर गये हैं पृथ्वी के सारे सिंहासन-
हम लोगों के मोहल्ले के वे सारे भांड़-
युवराज और राजाओं के हाड़ में जिनके धुल गये हैं हाड़
अंधकार में ढेरों माटी के नीचे पृथ्वी के तल में,
दीये की तरह वे निःश्वास जलते हैं
बीत नहीं गया उनका समय,
पृथ्वी के पुरोहित की तरह उन्हें हुआ नहीं भय,
प्रणयिनी की तरह वे हुई नहीं हृदयहीन
शहर की लड़कियों के नाम कविता लिखकर
खेतिहरों की तरह माथे के पसीने से क्लान्त हो
उन्होंने काटा नहीं बिताया नहीं समय
गहरी माटी में उनका कपाल
किसी एक सम्राट के साथ
मिला हुआ है आज अँधेरी रात में,
युद्ध जीते हुए पाँच फुट ज़मीन पर
आज उसकी खोपड़ी करती है अट्टहास!
गहरी रात से पहले आकर वेचले गए हैं-
उनके दिन का प्रकाश बदल गया है अँधेरे में।
ये सारे देहाती कवि गाँव-टोले के भांड-
आज इस अंधकार में आयेंगे क्या फिर?
उनकी उपजाऊ देह को चूसकर जन्मी है आज खेत में फ़सल,
बहुत दिनों से उस गंध को वे चूहे जानते हैं-समझते हैं
नरम रात के हाथ झरता है शिशिर का जल।
वे सारे उल्लू आज शाम की निश्छलता देखकर
अपने ही नाम पुकारे जाते हैं बार-बार
मिट्टी केनीचे से वे मृतकों के माथे
स्वप्न में हिलते-डोलते करते हैं क्या अद्भुत इशारे
ये अंधकार के मच्छर और नक्षत्र जानते हैं।
हम भी आये हैं खेत में फ़सल के बुलावे पर
सूर्य लोक भरा दिन छोड़कर, पृथ्वी के यश को पीछे फेंककर
शहर, बन्दर, बस्ती, कारख़ाना, दियासलाई की तीली से जलकर
उतर आये हैं इस खेत में
शरीर का अवसाद और हृदय का ज्वर भूल जाने के लिए
शीतल चाँद की तरह शिशिर के गीले पथ धर कर
हम चलना चाहते हैं फिर मर जाना चाहते हैं
दिन मेंप्रकाश के लाल-लाल आग के मुख में जलते हैं पतंगों-से
अगाध धान के रस में हम लोगों का मन
हम लोग मरना चाहते हैं गँवई कवि मोहल्ले-‘टोले की भांड जैसे।
मिट्टी पलटकर चला गया खेतिहर
या हल उसका पड़ा हुआ है-
पुरानी प्यास जागी हुई है खेत की
समय की हाँक लगाता है-हमारे भीतर उल्लू
फलता है हेमन्ती धान
दोनों पाँव फैलाकर बैठे पृथ्वी की गोद में।
आकाश के मीठे पथ पर रुक-रुक कर तिरता जाता है चाँद
अवसर है उसका-अबोध की तरह आह्लाद भरा
हमारा अन्त होने पर वह चला जायेगा पच्छिम
इतना ही समय बचा है
इसलिए यह बीत जाए रूप और कामना के गीत गाते।
3.
कटे खेत की गन्ध से यहाँ का भंडार भरा है।
पृथ्वी की राह कुछ नहीं है, किसी किसान की तरह
ज़रूरत नहीं दूर खेतों में जाना
बोध अवरोध क्लेश कोलाहल भी सुनने का समय नहीं।
नहीं जानना चाहता सम्राट सजे हैं या भांड बने हैं
कहीं फिर बेबीलोन टूटकर चूर-चूर हो जाता है
मेरी आँख के पास लाना नहीं सैनिकों के मशाल की ज्योति
नगाड़े रो लें, उल्लू के पंख की तरह अन्धकार
में छुप जाय राज्य, साम्राज्य के साथ
यहाँ कोई काम नहीं-उत्साह की व्यथा नहीं
उद्यम की नहीं, यहाँ मिट गयी है माथे की गहरी उत्तेजना और भावना
आलसी मक्खियों की भिनभिन से भरी होती है खीज भरी सुबह।
पृथ्वी मायावी नदी के पार का देश लगती है
सुबह की पड़ती धूप चारों ओर से दौड़ती यहाँ जम जाती है
ग्रीष्म के समुद्र से आँखों में उनींदे गीत तैर आते हैं
यहाँ पलंग पर सोये-सोये बिताऊँगा कुछ दिन
नींद की कामना में जगा रहकर।
यहाँ चकित होना नहीं पड़ेगा, भयग्रस्त रहने का नहीं समय
उद्यम की व्यथा नहीं-यहाँ नहीं है उत्साह का भय
यहाँ आकर काम को हाथ नहीं लगाना पड़ता
माथे पर चिन्ता की लकीर नहीं पड़ती
यहाँ सौन्दर्य आकर रखेगा नहीं हाथ आँख और आँख के ऊपर
नहीं मिलेगा प्यार
सोचने का कीड़ा मर गया है यहाँ माथे के भीतर
आलसी मक्खियों की भिनभिन से भरी होती है खीज भरी सुबह
पृथ्वी मायावी नदी के पार का देश लगती है
सुबह की पड़ती धूप चारों ओर से दौड़ती यहाँ जम जाती है
ग्रीष्म के समुद्र से आँखों में उनींदे गीत तैर आते हैं
यहाँ पलंग पर सोये-सोये बिताऊँगा कुछ दिन
नींद की कामना में जग कर...