अष्टादश प्रकरण / श्लोक 21-30 / मृदुल कीर्ति
अष्टावक्र उवाचः
वासना, आलम्ब, बन्धनहीन ज्ञान, से युक्त है,
प्रारब्ध रूपी पवन प्रेरित, शुष्क पर्ण वत मुक्त है.----२१
न ही हर्ष, न ही विषाद, ज्ञानी को कभी होता नहीं
मन शांत नित्य विदेह, पाता और कुछ खोता नहीं.----२२
आत्म रमणी विमल मन, आनंद मूल निवास हो,
अतिशय परे हो ग्रहण त्याग से, ब्रह्म में विश्वास हो.----२३
शून्य चित्त स्वभाव ज्ञानी, मान न अपमान है,
सहज रूप से कर्म और निष्काम भाव प्रधान है.-----२४
है कर्म करता देह मन, यह आत्मा किंचित नहीं,
जो कर्मरत इस भावना से, विरत, रत अनुचित नहीं.----२५
हैं मूढ़ता मय कर्म अज्ञानी के, ज्ञानी के नहीं,
अहम मय हैं मूढ़ , ज्ञानी किंतु अभिमानी नहीं.------२६
द्वैत भाव विमुक्त ज्ञानी को परम विश्रांति है,
जानता, सुनता न देखे, कल्पना न भ्रान्ति है .-------२७
विक्षेप न कोई द्वैत , ज्ञानी इसलिए न विमुक्त है,
ब्रह्म वत स्थित उसे संसार कल्पित तुच्छ है.-------२८
अन्तः अहम जिसके, बिना ही कर्म रत संकल्प से,
ज्ञानी अहम से शून्य रत, पर विरत कर्म विकल्प से.---२९
मुक्तजन कर्तव्य , आशा द्वंद और उद्विग्नता
से विरत, होकर परे, पर ब्रह्म से संलग्नता.-----३०