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वीणा फिर मूक हो गयी । 
साधु ! साधु ! " 
उसने 
राजा सिंहासन से उतरे -- 
"रानी ने अर्पित की सतलड़ी माल,  
हे स्वरजित ! धन्य ! धन्य ! "  
संगीतकार 
वीणा को धीरे से नीचे रख, ढँक -- मानो 
गोदी में सोये शिशु को पालने डाल कर मुग्धा माँ 
हट जाय, दीठ से दुलारती -- 
उठ खड़ा हुआ । 
बढ़ते राजा का हाथ उठा करता आवर्जन, 
बोला : 
"श्रेय नहीं कुछ मेरा : 
मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में 
वीणा के माध्यम से अपने को मैंने 
सब कुछ को सौंप दिया था -- 
सुना आपने जो वह मेरा नहीं, 
न वीणा का था : 
वह तो सब कुछ की तथता थी 
महाशून्य 
वह महामौन 
अविभाज्य, अनाप्त, अद्रवित, अप्रमेय 
जो शब्दहीन 
सबमें गाता है ।"  
नमस्कार कर मुड़ा प्रियंवद केशकम्बली। लेकर कम्बल गेह-गुफा को चला गया ।  
उठ गयी सभा । सब अपने-अपने काम लगे । 
युग पलट गया ।  
प्रिय पाठक ! यों मेरी वाणी भी 
मौन हुई ।  
